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मौत की वजह हीरे: आत्महत्याओं से भारत के रत्‍न कारोबार की चमक हुई धूमिल

by Roli Srivastava | @Rolionaroll | Thomson Reuters Foundation
Tuesday, 10 July 2018 00:01 GMT

Investigation uncovers a pattern of suicides - many shrouded in silence - in the industry that cuts and polishes 90 percent of gems sold globally

- रोली श्रीवास्तव

सूरत, 10 जुलाई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – उस दिन न्यूयॉर्क से लेकर हांगकांग तक की विशिष्‍ट दुकानों में हीरे भेजने के लिए पश्चिमी भारत के एक तंग कारखाने में लगभग 10 घंटे हीरे चमकाने के बाद विक्रम रावजीभाई अपने घर लौटा। फिर उसने परिजनों के बाहर जाने के बाद दरवाजा बंद कर लिया।

इसके बाद रावजीभाई ने स्‍वयं पर मिट्टी का तेल छिड़का और आग लगा ली।

घर वापस लौटने पर परिजनों को 29 वर्षीय रावजीभाई की बुरी तरह झुलसी हुई लाश मिली। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की तहकीकात में उजागर हुआ कि उसकी मौत देश के उभरते हीरे उद्योग में कम मजदूरी और दयनीय स्थिति में काम करने के कारण होने वाली आत्‍महत्‍याओं में से एक थी।

गुजरात में एक साल से अधिक समय तक की गई पड़ताल में पता चला कि अधिकतर आत्‍महत्‍याओं में कुछ समानता थी। ज्‍यादातर आत्‍महत्‍याओं के मामले चुप्‍पी में दब गए। 90 प्रतिशत रत्‍नों को वैश्विक स्तर पर बेचने वाले इस उद्योग में अधिकतर श्रमिक रत्‍नों को तराशने और चमकाने का काम करते हैं और प्रति रत्‍न के हिसाब से भुगतान किया जाता है।

इस उद्योग में कुछ ही श्रमिकों का वेतन निर्धारित होता है और उनमें से कुछ लोगों का वेतन एक लाख रुपये प्रति माह या उससे अधिक तक होता है। लेकिन कुल श्रमिकों में से 80 प्रतिशत से अधिक कर्मियों को प्रति रत्‍न एक से 25 रुपये की दर से भुगतान किया जाता है और उन्‍हें किसी प्रकार के सामाजिक लाभ भी नहीं मिलते हैं।  

हीरा कारखानों के मालिकों, दलालों, श्रमिक समूहों, परिवारों और पुलिस के साथ बातचीत में पता चला है कि इस कारोबार के केंद्र सूरत और यहां काम करने के लिए आने वाले मजदूरों के क्षेत्र सौराष्ट्र में पिछले नवंबर से नौ आत्महत्याएं हुईं हैं।  

लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह आंकड़ा काफी कम है, क्‍योंकि पिछले एक दशक में हीरा निर्यात 70 प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि हीरे तैयार करने की प्रक्रिया में श्रमिकों का उत्‍पीड़न नहीं होता है।

रोजगार के अन्‍य विकल्‍पों की कमी और नौकरी खोने के भय से परिजन आत्‍महत्‍या के लिए  हीरा कारोबार को दोषी ठहराने से कतराते हैं। इस उद्योग में 15 लाख से अधिक पुरुष कार्यरत हैं, जो मुख्य रूप से सूखाग्रस्त सौराष्ट्र से हैं।

 

रावजीभाई की मां वसनबेन अपने बेटे की मौत के गम से उबरने की कोशिश कर रही है, जो उसके पति की मृत्‍यु के बाद से घर में इकलौता कमाने वाला था। एक दशक पहले दिल का दौरा पड़ने से उसके पति का देहांत हो गया था, जो हीरे चमकाने का काम करता था।

जनवरी में जिस कमरे में उसके बेटे की मृत्यु हुई थी उसका पर्दा हटाते हुए वसनबेन ने कहा,  "विक्रम 16 वर्ष की उम्र से ही हीरे चमकाने का काम करने लगा था। वह अधिक काम पाने का  प्रयास कर रहा था।"

सौराष्ट्र के भावनगर में एक मलिन बस्‍ती में कालिख लगे कमरे के बाहर बैठी वसनबेन ने कहा कि उसका बेटा बढ़ते खर्च के चलते और शादी न कर पाने की वजह से चिंतित था।

उसने कहा, "वह 6,000 रुपये प्रति माह कमाता था, लेकिन हमारे सात सदस्‍य के परिवार के लिए उतने पैसे पर्याप्त नहीं थे।"

"मैंने उसे आश्‍वस्‍त किया था कि हमारे खाने का प्रबंध है और अब हमारी स्थिति ठीक होगी। उस दिन हमें ए‍क शादी में जाना था और उसने हमारे घर से निकलने के बाद आत्‍महत्‍या कर ली।"

आत्‍महत्‍या के मामले

पीढि़यों से इस उद्योग में काम करने के कारण भारतीय श्रमिकों के कौशल और कम मजदूरी की वजह से प्रमुख खनन कंपनी और मूल्‍य के आधार पर विश्‍व के सबसे बड़े निर्माता डी बीयर्स से लेकर रूस की कंपनी अलरोजा तक हीरे को तराशने और चमकाने का काम भारत में करवाते हैं।

श्रमिकों की आत्महत्या के बारे में पूछे जाने पर एंग्लो अमेरिकन पीएलसी समूह- दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी रियो टिंटो और रूस के अलरोजा ने कहा कि जिन कंपनियों को वे अपरिष्कृत हीरा बेचते हैं वहां इस प्रकार का कोई मामला सामने  न‍हीं आया है।

सरकारी अधिकारियों ने कहा कि श्रमिकों को अच्‍छा भुगतान किया जाता है और यह उद्योग 'सकारात्‍मक' है। उन्‍होंने कहा कि उद्योग द्वारा स्कूलों, अस्पतालों की स्थापना की जा रही है और मरने वालों या आत्महत्या करने वाले श्रमिकों के रिश्तेदारों को नौकरियां दी जा रही हैं।

लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ज्यादातर बड़ी कंपनियों में वातानुकूलित कारखाने और निर्धारित वेतन होता है, जबकि कई छोटी कंपनियों में शौचालय या हवा आने जाने के लिए झरोखे तक नहीं होते हैं और कारखानों में मजदूर गुलामों जैसी परिस्थितियों में खाते और सोते हैं।

भारत में आयात किए गए अपरिष्कृत हीरे किम्बर्ले प्रक्रिया योजना के जरिए 'विवाद मुक्त' प्रमाणित होने चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनका इस्‍तेमाल गृह युद्धों के लिए धन मुहैया करवाने में नहीं किया जा रहा। इसके साथ ही तथाकथित "खूनी हीरे" की बजाय यह मानवाधिकारों के हनन से भी मुक्त हों। केपी समूह का अपरिष्कृत हीरे के वैश्विक उत्पादन में लगभग 99.8 प्रतिशत का योगदान है।

लेकिन वैश्विक लाभ निरपेक्ष संगठन जिम्मेदार आभूषण परिषद (आरजेसी) द्वारा तराशे और चमकाए गए हीरों के लिए दिया जाने वाला प्रमाणन वैकल्पिक है।

गुजरात में बड़ी और छोटी लगभग 15,000  हीरा कंपनियों में से केवल 90 कंपनियां प्रमाणित आरजेसी सदस्य हैं। लगभग 30 कंपनियां डी बीयर्स के अपरिष्‍कृत हीरे के अधिकृत खरीदार हैं, जिसके कारण वे तय श्रम नियमों का पालन करने को बाध्य हैं।

लेकिन संसाधित हीरे के प्रमाणीकरण के लिए कंपनियों पर दबाव नहीं ड़ाला जा रहा है।

देश के रत्नों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार द्वारा स्थापित रत्‍न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद का कहना है कि यह कारखानों के मालिकों पर निर्भर करता है कि वे प्रमाणपत्र लेना चाहते हैं या नहीं।

गुजरात के श्रम अधिकारियों ने कहा कि देश में श्रम कानून लागू करवाने के अलावा इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है।

लेकिन कार्यकर्ता सामाजिक लाभ के बगैर हर रत्‍न तराशने के एवज में भुगतान पाने वाले उन श्रमिकों के कल्याण को लेकर चिंतित हैं, जो अक्सर अपने परिवार का पेट पालने और उन्‍हें शिक्षित करने के लिए कर्ज लेते हैं।

2007 में उद्योग का अध्ययन करने वाले सूरत के जे.डी. गबानी वाणिज्य कॉलेज में वाणिज्य के प्रोफेसर गौतम कनानी ने कहा, "कारोबार बढ़ गया है, बेहतर तकनीक का इस्‍तेमाल हो रहा है, लेकिन मात्र 25 प्रतिशत श्रमिक ही पर्याप्त कमाई कर पाते हैं।"

कुछ हीरा श्रमिकों के लिए परिणाम घातक हो सकते हैं।

 

पुलिस फाइलों से आत्महत्या के कारण खंगालने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे शांत श्रमिक ने अचानक ही  आत्‍महत्‍या कर ली।

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से साझा किए गए पुलिस के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2001 से अब तक सूरत मे हुई 5,000 से ज्‍यादा आत्‍महत्‍याओं में से सबसे अधिक आत्‍महत्‍याएं उन इलाकों में हुईं हैं, जहां हीरा श्रमिक रहते हैं।

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने सूरत में जनवरी से अप्रैल तक हुई 23 पुरुषों की आत्महत्या का विश्लेषण करने पर पाया कि छह हीरा श्रमिकों ने फांसी लगा ली थी या जहर खा लिया था। सौराष्ट्र क्षेत्र में भी इसी प्रकार से आत्‍महत्‍या के तीन मामलों के बारे में पता चला था।  

पुलिस जांच

इस वर्ष पुलिस अधिकारी आशीष डोडिया ने बीस-बाईस साल के दो हीरा श्रमिकों की आत्महत्या की जांच की जिन्‍होंने जहर खा लिया था।

22 वर्षीय भरतभाई जठरभाई भाम्‍मर तीन साल पहले सूरत आया और उसी कारखाने में रहने लगा, जहां वह हीरे चमकाने का काम करता था। उसने इस साल अप्रैल में अपने कार्यस्‍थल पर ही जहर खा लिया था।

सूरत में ही रत्नों को चमकाने का काम करने वाले उसके चचेरे भाई लक्ष्मणभाई खोदुभाई भाम्‍मर ने कहा, "उसका काम हीरे की अंतिम चमक देना था। वह हम सभी के समान प्रतिदिन 10 घंटे काम करता था।"

"उस दिन उसके कारखाने से फोन आया। जब मैं उसे अस्पताल ले जा रहा था उस समय उसने मुझसे कहा कि- मुझे बचा लो।"

आत्महत्या करने वाला अन्‍य व्‍यक्ति राजेशभाई मकवाना छह साल से सूरत में हीरे चमकाने का काम करता था और वह हर महीने लगभग 13,000 रुपये कमाता था। इस साल फरवरी में उसकी पत्नी के साथ बहस होने पर उसने अपनी जीवन लीला समाप्‍त कर ली थी।

मकवाना के भाई संतोष ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "उसे कोई समस्या नहीं थी।"

डोडिया ने जिन मामलों की जांच की उनमें उन्‍होंने इस बात से इनकार किया कि काम के कारण मौते हुईं हैं। 

उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "हीरे के कारोबार के कारण उन्‍होंने आत्‍महत्‍या नहीं की, बल्कि इस क्षेत्र में उनकी ज्‍यादा संख्या के कारण हीरा कर्मियों के आत्महत्या के मामले अधिक हैं।

"कोई भी हीरा कर्मी भूखा नहीं मरेगा। उन्हें हर महीने समय पर भुगतान किया जाता है।"

सूरत में हीरा कर्मियों के इलाके में तैनात अन्य पुलिस अधिकारियों ने अपनी जांच में पाया कि हीरे के काम के कारण ही आत्महत्याएं हुई थीं।

इस वर्ष दो श्रमिकों की आत्महत्या की जांच करने वाले रमेशभाई गुलाबराव ने कहा, "श्रमिक कर्ज लेते हैं और वे उसे कभी चुका नहीं पाते हैं। हमारे सामने उस समय आत्महत्या के ज्‍यादा मामले आते हैं जब हीरे की वैश्विक मांग कम हो जाती है, क्‍योंकि इसके कारण नियोक्ता उन्हें समय पर भुगतान नहीं कर पाते हैं।"

कुछ श्रमिकों ने कहा कि वे हर साल कम से कम दो महीने बगैर वेतन के रहते हैं, क्‍योंकि इस दौरान व्यापार कम होता है और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्‍हें पैसे उधार लेने पड़ते हैं।

इस वर्ष मार्च में सूरत की तंग बस्‍ती में भाम्‍मर के घर से कुछ किलोमीटर दूर 22 वर्षीय मितेशभाई हितेशभाई कंसारा ने अपने रसोईघर के पंखे से लटककर फांसी लगा ली थी। एक कमरे के फ्लैट में वह अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रहता था।

कंसारा के छोटे भाई वत्सल ने कहा, "वह हीरे की बड़ी कंपनी में काम करता था और उसे प्रति माह 10,000 रुपये वेतन मिलता था। सूरत जैसे शहर में रहने के लिए इतना पैसा पर्याप्‍त है।"

"वह पढ़ाई में अच्छा था। वह 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और कॉलेज जाने की योजना बना रहा था। वह हीरे चमकाने का काम नहीं करना चाहता था।"

'दासता और दमन'

श्रमिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए 2013 में राजकोट में हीरा श्रमिक संघ गठित करने वाले रमेश जि़लिरिया ने कहा कि हीरा उद्योग में ऋण बंधन और बाल मजदूरी अतीत की बात हो सकती है, लेकिन यहां "दासता और दमन आज भी जारी है।"

पहले रत्‍नों को चमकाने का काम करने वाले जि़लिरिया ने कहा, "अपनी नौकरी खोने के भय से श्रमिक कम मजदूरी का विरोध नहीं करते हैं।"

सूरत में हीरा श्रमिकों के कल्याणकारी निकाय रत्‍न कलाकर विकास संघ ने 2016 से 2017 तक श्रम विवाद के लगभग 2,000 मामले दर्ज किए। उनमें से अधिकतर मामले श्रमिकों को नौकरी से निकालने के थे।

दो साल पहले समूह ने एक कर्मी की आत्महत्या की जांच करने की कोशिश की जो एक हीरा कारखाने की पांचवीं मंजिल से कूद गया था।

कल्याणकारी निकाय के अध्यक्ष जयसुखभाई नांजीभाई गजेरा ने कहा कि इसके बावजूद उसके परिजनों ने शिकायत दर्ज नहीं करवाई, जिसकी वजह से जांच बीच में ही छोड़नी पड़ी थी।

उन्होंने कहा कि डिजाइनर बैग, कारों और समुद्री पर्यटन के साथ विलासिता की वस्‍तुओं के बाजार में हीरे की प्रतिस्पर्धा के चलते उद्योग की अनिश्चिता श्रमिकों की परेशानी का सबब हो सकती है और इसकी मांग में गिरावट का असर श्रमिकों की मजदूरी पर पड़ता है।

लगभग एक दशक पहले अर्थशास्त्री इंदिरा हिर्वे ने पाया कि 2008 के वैश्विक मंदी के दौर में सूरत में 50 हीरा कर्मियों ने आत्महत्या की थी, क्योंकि तब कई कारखाने बंद हो गए थे और श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया गया था।

श्रमिक संघों का कहना है कि उस समय 300 श्रमिकों ने अपनी जीवन लीला समाप्‍त कर ली थी और आज भी आत्महत्या का सिलसिला जारी है, लेकिन उनके परिजन अपने रिश्तेदारों के कार्य के माहौल को उनकी मौत के लिए जिम्‍मेदार ठहराने से कतराते हैं।

उन्होंने कहा कि ज्यादातर आत्महत्याएं कर्ज नहीं चुकाने और कम मजदूरी के कारण हुईं थीं, जिससे श्रमिकों को खाने के लाले पड़ गए थे और उनके बच्‍चों की पढ़ाई बीच में ही बंद हो गई थी।

“हीरा श्रमिकों पर 2008 की मंदी के असर” विषय पर यूएनडीपी के अध्ययन का नेतृत्व करने वाली इंदिरा हिर्वे ने कहा, "हीरा कर्मी शिकायत नहीं करते हैं, क्योंकि अक्सर परिवार या समुदाय के किसी व्‍यक्ति की वजह से उन्‍हें ये नौकरियां मिलती हैं। उनमें से अधिकतर बीच में ही स्कूली पढ़ाई छोड़ चुके होते हैं।"

अहमदाबाद में सेंटर फॉर डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स की निदेशक हिर्वे ने कहा, "भारत में वैश्वीकरण का ऐसा असर पड़ रहा है, जहां व्यापारी और निर्यातक काफी धन कमाते हैं, लेकिन निचले पायदान के लोगों को कम मजदूरी मिलती है और उनका अत्‍यधिक शोषण किया जाता है।"

दिहाड़ी मज़दूरी

सूरत में श्री डायमंड वर्कर यूनियन में मुकेशभाई वालजीभाई कंजरिया उन पत्रों को देखते हैं, जो हीरा श्रमिकों की समस्याओं के बारे में उन्‍होंने राज्य के अधिकारियों को लिखे थे।

यूनियन के अध्यक्ष कंजरिया ने कहा, "पहले एक कर्मी 50 हीरे को चमकाता था और उसे आठ रुपये प्रति नग के हिसाब से भुगतान किया जाता था। अब मशीनें हैं और वह एक दिन में 500 हीरे चमका सकता है, लेकिन उसकी आय उतनी ही है।"

कंजरिया ने कहा कि इन श्रमिकों को अन्य कारखानों के कर्मचारियों की तरह पेंशन और चिकित्सा देखभाल के लिए आर्थिक सहायता जैसे सामाजिक लाभ भी नहीं मिलते हैं।

लेकिन गुजरात के श्रम अधिकारियों का कहना है कि हीरा उद्योग के कर्मचारी न्यूनतम मजदूरी 8,300 रुपये प्रति माह से अधिक कमाते हैं।

सहायक श्रम आयुक्त आशीष गांधी ने कहा, "उन्हें सामाजिक सुरक्षा में कोई रूची नहीं है, क्योंकि इसमें कागजी कार्रवाई करनी पड़ती है और ज्यादातर कर्मी और उनके नियोक्ता दोनों ही अशिक्षित होते हैं।"

"हीरे की मांग में उतार-चढ़ाव या कारखानों में श्रमिकों की संख्या कम करने पर उनके सामने समस्याएं आती हैं, लेकिन उनका कल्याण नियोक्ता की सोच पर निर्भर करता है।"

कुछ कर्मी स्‍वयं का करोबार शुरू करने के लिए हीरे चमकाने का काम छोड़ देते हैं लेकिन बहुत कम लोग ही प्रगति कर पाते हैं, जबकि अधिकतर लोगों पर स्थानीय साहूकारों के ऋण का बोझ बढ़ जाता है।

भरतभाई राठौड ने स्‍वयं का कारखाना शुरू करने का निर्णय लेने से पहले लगभग 15 साल तक भावनगर में हीरे चमकाने का काम किया था।

उनका कारोबार थोड़े समय ही चल पाया।

सूरत से लगभग 500 किलोमीटर दूर भावनगर के दमराला गांव में कपास के खेत में काम करने वाली राठौड की पत्नी शोभाबेन ने कहा, "उन्होंने एक दिन खेती में इस्‍तेमाल होने वाली कीटनाशक पी ली।"

कपास चुनती शोभाबेन ने आंसू पोंछते हुए कहा, "हमें नहीं पता था कि वे किस बात से परेशान थे। उन्‍होंने हमें कभी कुछ नहीं बताया। हमें तो बाद में पता चला कि उन्‍होंने अपरिष्‍कृत हीरे के लिए ऋण लिया था और उन्‍हें धमकाया जा रहा था।"

छलावा

सूरत में चिलचिलाती दोपहर को गहमा गहमी वाली गली में कई पुरुष फुटपाथ पर बैठे थे। उनकी गोद में रखी नीले रंग की ट्रे में हीरे रेत की तरह बिखरे हुए थे, जिन्हें उठाकर वे छोटे से मेग्निफाईंग ग्‍लास से परख रहे थे।

महिधरपुरा सूरत का रत्‍न व्यापार केंद्र है, जहां व्यापारी अफ्रीका, इज़राइल और बेल्जियम की खनन कंपनियों से खरीदे गए अपरिष्‍कृत हीरे कारखानों के मालिकों को बेचते हैं। वहां उन्‍हें तराशकर चमकाने के बाद आभूषण निर्माताओं को बेचा जाता है।

सूरत में तैयार किए गए हीरे बाजार में आभूषण निर्माताओं को बेचे जाते हैं, लेकिन उनमें से लगभग 90 प्रतिशत हीरे दुनिया के सबसे बड़े हीरे बाजारों में से एक मुंबई भेजे जाते हैं और फिर वहां से उनका निर्यात किया जाता है।

पारदर्शी प्रतीत होने वाले हीरे के कारोबार में कई स्‍तरों पर जटिल लेनदेन होता है। इसका अर्थ यह है कि कर्मी अक्सर हीरे के असली मूल्य और गंतव्य से अनजान होते हैं।

35 वर्षीय आशीष दानसंघ बावल्‍वा 12 साल से हीरे चमकाने का काम कर रहा था, लेकिन एक दिन उसने एक छोटी सी कागज की थैली पर एक मुद्रा का चिन्‍ह देखा, जिसमें उसके द्वारा चमकाए गए हीरे रखे थे।

बावल्‍वा ने कहा, "वह डॉलर का चिन्‍ह था। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि हीरे को चमकाने के लिए हमारी मजदूरी का भुगतान रुपये में किया जा रहा था और वे हीरे बेच कर डॉलर कमाए गए थे।" सूरत में अपने परिवार का अच्‍छे से भरण-पोषण नहीं कर पाने के कारण अब वह वहां नहीं रहता।

सूरत में लिए डेढ़ लाख रुपये का कर्ज चुकाने के लिए छोटी-मोटी नौकरी करने वाले बावल्‍वा ने कहा, "इसका अर्थ है कि ये कंपनियां हीरे तराशने और चमकाने का काम मुफ्त में ही करवा रही हैं।"

रत्न और आभूषण निर्यात परिषद के दिनेश नवादिया ने कहा कि अधिकतर कंपनियां अपने कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा पर ध्‍यान देती हैं और चिकित्सा देखभाल के लिए वित्‍तीय सहायता भी दी जाती है।

श्रमिकों की आत्महत्या के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने स्वीकार किया कि यह एक समस्या है, जो कम उत्पादकता, वेतन में कटौती और सूरत जैसे महंगे शहर में मजदूरों के संघर्ष से जुड़ी हुई है।

उन्होंने कहा, "लेकिन कर्मियों की मृत्यु होने पर हीरा कंपनियां उनकी पत्नियों या उनके बच्चों को नौकरी पर रखती हैं। यह एक सकारात्मक उद्योग है।"

बेल्जियम के डायमंड प्रोड्यूसर एसोसिएशन प्रमुख जीन-मार्क लि‍बरर ने कहा कि श्रमिकों का शोषण ना हो यह सुनिश्चित करने के लिए प्रमुख खनन कंपनियां सही मायनों में प्रयास कर रहीं हैं। एसोसिएशन का उद्देश्य उद्योग में उत्‍तम प्रथाओं को प्रोत्साहित करना है।

उन्होंने कहा कि लेकिन पूरे गुजरात के हजारों श्रमिकों की सीधे निगरानी करना कठिन कार्य है, क्‍योंकि कई कारखाने दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थित हैं।

डी बीयर्स के एक प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी की कर्मी सुरक्षा की व्यापक योजना है जिसका पालन करना उनके ग्राहकों और ठेकेदारों के लिए अनिवार्य है और उनके श्रम मानकों का उल्लंघन करने वालों के साथ व्यापार नहीं किया जाता है।

रियो टिंटो के प्रवक्‍ता का कहना है कि इसी प्रकार आरजेसी के संस्थापक सदस्य रियो टिंटो की भी व्यापार में उत्तम प्रथाओं के मानक हैं जिनमें श्रम सुरक्षा मानदंड शामिल हैं। अलरोजा के प्रवक्‍ता के अनुसार उनसे अपरिष्‍कृत हीरा खरीदने वाली कंपनियों के श्रमिक अधिकारों के संरक्षण के लिए गठबंधन दिशानिर्देश हैं।

कनाडा की खनन कंपनी लुकारा के एक प्रवक्‍ता ने कहा कि कंपनी आरजेसी प्रमाणित है और वह निविदाओं के माध्यम से अपरिष्‍कृत हीरे बेचती है और सभी ग्राहकों की जांच की जाती है।

आभूषण विनिर्माण प्रमुख चो ताई फूक ने कहा कि वे केवल उन कंपनियों से रत्न खरीदते हैं जो डी बीयर्स और आरजेसी के निर्धारित मानदंडों का अनुपालन करते हैं। हीरे चमकाने वाले अधिकतर भारतीय कारखाने चो ताई फूक को हीरे की आपूर्ति करते हैं।

लेकिन श्रमिक समूहों का कहना है कि हीरा व्यापार के उतार-चढ़ाव से श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कदम नहीं उठाए गए हैं और यह कारोबार अभी भी असंगठित है, जिससे उनके जीवन तथा  भारत में हीरा चमकाने का भविष्य अंधकार मे है।

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने जिन कर्मियों से मुलाकात की वे नहीं चाहते कि उनके बच्‍चे हीरा उद्योग में काम करें, जबकी उनमें से कुछ श्रमिकों का वेतन निर्धारित था।

बेटे की आत्‍महत्‍या के बाद से वसनबेन ने फैसला किया कि उसके अन्य तीन बेटे कभी भी हीरे चमकाने का काम नहीं करेंगे।

उसने कहा, "हीरे के कारोबार में कोई प्रगति नहीं है। यहां काम करने वाला व्‍यक्ति जीवन में कुछ भी नहीं कर पायेगा।"

(रिपोर्टिंग-रोली श्रीवास्‍तव, संपादन- कीरन गिल्‍बर्ट और बेलिंडा गोल्‍डस्मिथ; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

 

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