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फीचर – किस बच्‍चे को स्कूल भेजा जाए? यह तय कर पाना भारतीय परिधान श्रमिकों के लिए कठिन

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Thursday, 14 June 2018 12:50 GMT

  • अनुराधा नागराज

    बेंगलुरु, 14 जून (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - कड़ी मेहनत करने वाली वसंतम्मा कुमार के बच्‍चे  इस सप्‍ताह शुरू होने वाली कक्षा में पढ़ने के लिए जा पाएं, इसलिए उसको अपने गहने गिरवी रखने पड़े और उसने दो ऋण भी लिये।

     आठ-आठ घंटे ब्रांडेड शर्ट के कफ काटने वाली इस सिलाईकर्मी को बहुत कम वेतन दिया जाता है, इसलिए अपने बच्चों की स्कूली पढ़ाई जारी रखने के लिए उसे मजबूरन साहूकारों से पैसा उधार लेना पड़ा।

       अब वह देश के सालाना 40 अरब डॉलर के वस्त्र और परिधान उद्योग के उन लाखों श्रमिकों में से एक है, जो वैश्विक ब्रांडों की आपूर्ति करने वाले कारखानों से अधिक वेतन देने की मांग कर रहे हैं।

      कुमार ने कहा, "मई-जून के महीने में हम बच्चों की फीस भरने, उनकी नई वर्दी और किताबें खरीदने के लिए नियमित रूप से बड़ा ऋण लेते हैं।"

    "मेरी बेटी के कॉलेज ने भी चंदा देने को कहा था, जो उधार लिए धन से संभव हो पाया। मैं चाहती हूं कि वे पढ़ाई जारी रखें, लेकिन कभी-कभी यह असंभव लगता है।"

     कार्यकर्ताओं का कहना है कि न्यूनतम वेतन कानून के बावजूद हजारों श्रमिकों का वेतन "काफी कम" है। इनमें से भी कईयों को अभी भी वेतन की पर्ची नहीं दी जाती है या उन्‍हें केवल प्रशिक्षु के रूप में काम पर रखा जाता है।     

     कुमार के हाथ में 7,000 रुपये वेतन आता है और उसे दो लाख से अधिक का कर्ज चुकाना है।

     चेन्नई स्थित महिला श्रमिक संघ पेन थोजिलालार्गल संगम की सुजाता मोदी ने कहा, "यहां प्रत्‍येक व्‍यक्ति ऋणी है और यह कभी न समाप्‍त होने वाला ऋणों का दुष्चक्र है।"

       "इस उद्योग में कार्यरत महिलाएं हमेशा एक व्‍यक्ति का कर्ज चुकाने के लिये अन्‍य व्‍यक्ति से पैसे उधार लेती रहती हैं।"

     देश के संपन्न वस्त्र उद्योग में लगभग चार करोड़ 50 लाख श्रमिक काम करते हैं, जिनमें से अधिकतर महिलाएं हैं। दक्षिणी राज्य तमिलनाडु और कर्नाटक में इस उद्योग के प्रमुख केंद्र स्थित हैं।

     इन कर्मियों द्वारा सीले परिधान दुनियाभर में निर्यात किए जाते हैं और बड़े ब्रांड इन्‍हें बेचते हैं। इन ब्रांडों ने काफी समय पहले अपनी आपूर्ति श्रृंखला में बेहतर माहौल तैयार करने का वचन दिया था।

    कार्यकर्ताओं का कहना है कि वचन के बावजूद माहौल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और कर्मियों को कम वेतन देना, उनका मौखिक और यौन उत्पीड़न तथा उनसे अधिक समय तक काम करवाना बदस्‍तूर जारी है।

     कंबोडिया, भारत और बांग्लादेश में 500 से अधिक श्रमिकों का एक साल तक अध्‍ययन करने पर पाया गया कि अपने परिवार का पेट पालने और मकान का किराया देने के लिए महिलाएं अक्सर ओवरटाइम करती हैं या धन उधार लेती हैं।

    अध्‍ययनकर्ताओं ने पाया कि न्यूनतम मजदूरी अर्जित करने और ओवरटाइम के बावजूद ज्यादातर लोगों के पास पैसे की कमी थी।

  कौन सा बच्चा?

   सिलाईकर्मी  सविता राजेश के लिए इस वर्ष से अपनी किशोर बेटी का स्कूल बंद करवाने का निर्णय लेना कठिन था।

   उसने कहा कि कर्ज बढ़ने और उसके वेतन या त्योहार बोनस में कोई बढ़ोतरी नहीं होने के कारण उसके पास कोई विकल्प नहीं था।

    35 वर्षीय कर्मी पिछले 12 वर्षों से अग्रणी फैशन ब्रांडों के लिए शर्ट और ब्लाउज की सिलाई कर रही है और उसका मासिक वेतन 8,500 रुपये है।

   कुमार ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "मेरी बड़ी बेटी ने 10वीं पास कर ली है, लेकिन इस सत्र से वह आगे नहीं पढ़ पाएगी। प्रश्‍न यह नहीं है कि मैं ऐसा चाहती हूं या नहीं, उसकी आगे की पढ़ाई का खर्च वहन करना मुश्किल है।"

   "मेरे पति जिस परिधान कारखाने में काम करते थे वह कुछ महीने पहले बिना किसी सूचना के बंद हो गया। वह अभी भी बेरोजगार हैं। हमने छोटी बेटी की फीस और किताबों के लिए 20,000 रुपये का ऋण लिया था। ब्याज पहले ही बढ़ रहा है।"

    यूनियन के नेताओं का कहना है कि कर्ज चुकाने के लिए ज्यादातर श्रमिक मजबूरन कुछ साल के बाद इस्तीफा देते हैं, ताकि वे अपने कारखाने के कर्मचारी बचत कोष से धन ले सकें।

   4,000 से अधिक श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली गारमेंट लेबर यूनियन की सरोज कन्नप्पा ने कहा, "इसके बाद वे दोबारा काम करना शुरू करते हैं, लेकिन अब उन्हें नया कर्मचारी माना जाता है। उन्‍हें फिर सबसे नीचे के स्‍तर से अपना काम शुरू करना पड़ता है और आगे मिलने वाले स्थायी कर्मचारियों के लाभ भी उन्‍हें नहीं मिलते हैं।"

     "यहां किसी भी प्रकार की वित्तीय सुरक्षा नहीं है, उन महिलाओं के लिए भी नहीं जिन्होंने 20 साल तक बड़े ब्रांडों के लिए परिधानों की सिलाई की है।"

    यूनियनें और कार्यकर्ता इन कर्मियों के लिए आजीविका वेतन चाहते हैं। उनका कहना है कि अधिकतर एशियाई देशों द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन गरीबी दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

   ब्रांडों को उनकी आपूर्ति श्रृंखला के सभी श्रमिकों को आजीविका वेतन देने का उनका वचन याद दिलाने के लिये 1 मई को बेंगलुरु में 1,000 से ज्यादा लोग हाथों में तख्तियां लेकर एक रैली में शामिल हुए।

   चेन्नई में मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश के बाद पिछले दो साल से श्रमिक अपना बकाया धन पाने के लिए लंबी अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। न्‍यायालय ने कहा था कि श्रमिकों को 30 प्रतिशत तक बढ़ा हुआ उनका वेतन मिलना चाहिए, जो 12 साल में पहली न्यूनतम वेतन वृद्धि है।

   पिछले 17 साल से सिलाईकर्मी रही और अब गारमेंट लेबर यूनियन की प्रमुख रुक्मिनी वी. पुट्टस्वामी ने कहा, "हर दिन एक संघर्ष है।"

   "बेंगलुरु जैसे शहरों में श्रमिकों के लिए जीवन निर्वाह व्‍यय काफी अधिक है और इनमें से कई अकेली मां हैं। मकान किराया बहुत अधिक है और शिक्षा महंगी है। धन उधार लेने और उधारी चुकाने के लिए लगातार काम के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। " 

(1 डॉलर = 67.6425 रुपये)

(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- लिंडसे ग्रीफिथ; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

 

 

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