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फीचर- दुःस्वप्न से सुनहरे सपने - बचाए गए भारतीय बच्चों ने दासता के जीवन को उकेरा

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Thursday, 17 May 2018 00:01 GMT

Drawings by children rescued from bonded labour displayed in Chennai, India, May 14, 2018. Thomson Reuters Foundation/Anuradha Nagaraj

Image Caption and Rights Information

  • अनुराधा नागराज

    चेन्नई, 17 मई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – बंधुआ मजदूरी के माहौल में पले-बढ़े बच्‍चों द्वारा बनाये गये उनके पारिवारिक जीवन के चित्रों में खतरनाक कुत्ते, अत्‍याचारी मालिक और एक वीरान पड़ा घर है, क्योंकि इसके निवासी हमेशा काम पर होते हैं।

      ईंट भट्ठों, चावल मिलों और लकड़ी काटने के कारखानों में जबरन मजदूरी से बचाए गए बच्चों के अंकित चित्रों से समाज सेवकों को उनके दयनीय अनुभव के बारे में

अनोखी जानकारी मिली।

      प्रचारकों का कहना है कि जैसे सरकार बाल मजदूरी के बारे में जानकारियां इकठ्ठा कर रही है, ऐसे में उनके अनुभवों के लिखित प्रमाण भी अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं।

     तस्‍करी रोधी धर्मार्थ संस्‍था- इंटरनेशनल जस्टिस मिशन के समाज सेवक लोरेटा झोना ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "उन्‍होंने उन बारीकियों को अपने चित्रों में उकेरा जिनका जिक्र बच्‍चों के बचाव के दौरान उनके माता-पिता भी अधिकारियों से नहीं करते हैं।"

     "एक छोटे लड़के ने एक खाली घर का चित्र बनाया और हमें बताया कि इसमें कभी भी कोई नहीं रहता, क्योंकि इसके निवासी चौबीस घंटे काम करते हैं। उसने काम के निरंतर चक्र को महसूस किया था।" 

     भारत में 1976 से बंधुआ मजदूरी प्रतिबंधित है। लेकिन इन दयनीय चित्रों से उन वंचित समुदायों के लाखों लोगों की वास्तविकता नजर आई है, जो अभी भी ऋण बंधन के चक्र में फंसे हुए हैं। यह भारत में दासता का सबसे प्रचलित रूप है।   

     गरीबी और बेरोजगारी के कारण पुरुषों और महिलाओं को मजबूरन साहूकारों या नियोक्ताओं से ऋण लेना पड़ता है। उस ऋण को चुकाने के लिए वे अगले छह महीने या अधिक समय तक काम करते हैं।

    कई बार उनके छोटे बच्चे भी उनके साथ जाते हैं और कर्ज चुकाने में मदद के लिए वे भी काम करते हैं।

     उत्तरी राज्य पंजाब के ईंट भट्ठों में कार्यरत मानवाधिकार समूह वालंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस के जय सिंह ने कहा, "बचाव कार्रवाई के दौरान बच्चे पहले तो आपको बताते हैं कि वे भट्ठियों या कारखानों में काम नहीं करते हैं।"

    "लेकिन जब आप उनसे पूछते हैं कि वे सारा दिन क्या करते हैं, तो वे तुरंत ही मिट्टी को रौंदने या ईंटों को सुखाने के लिये उन्‍हें पलटने लग जाते हैं। कोई भी इसे काम नहीं कहता, लेकिन वे मेहनत कर रहे हैं।"

     इंटरनेशनल जस्टिस मिशन और मानवाधिकार समूह वालंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कम से कम एक लाख ईंट भट्ठियां हैं, जिनमें लगभग दो करोड़ 30 लाख श्रमिक काम करते हैं।  

     रिपोर्ट में बताया गया कि भट्ठों में रहने वालों में से एक तिहाई बच्चे हैं।

  निराशा से आशा

    शिक्षक रजनीकांत बिस्वाल को अक्‍सर दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में बंधुआ मजदूरों को बचाने के अभियानों की टीम में शामिल होने को कहा जाता है।

   छापे के दौरान वे सबसे पहले एक कोने में टोपी बनाना शुरू करते हैं।

   बिस्वाल ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को फोन पर दिये साक्षात्कार में बताया, "मैं यह कार्य उन बच्चों के लिए करता हूं जो माता-पिता के साथ वहां फंसे होते हैं।"

  "मैं उन्हें टोपी देता हूं, थोड़ा नाच-गाना होता है और फिर उनसे बातचीत शुरू करता हूं। वे पहले संकोच करते हैं लेकिन धीरे-धीरे मुझे अपने जीवन के बारे में बताते हैं, जो हमेशा हृदय  विदारक होता है।"

    2014 में बचाए जाने के बाद अपने पहले चित्र में एक आठ वर्षीय लड़की ने अपने पालतू बतख का चित्र बनाया था, जिसे उसके माता-पिता के मालिक ने सजा के रूप में उससे छीन लिया था। 

   परामर्शदाताओं ने कहा कि एक लड़के ने बड़े कुत्तों का चित्र बनाया था, जिन्‍हें काम न करने पर उसके परिजनों के पीछे छोड़ दिया जाता था। इससे उनके जीवन का हिस्सा बनने वाले भय और हिंसा का पता चलता है।

  हालांकि जैसे-जैसे समय बीतता है चित्र अधिक सकारात्मक होते जाते हैं।

   अपने परिवार के साथ चावल कारखाने से बचाए गए एक किशोर बच्‍चे ने हेलीकॉप्टर का चित्र इस आशा में बनाया था कि वह अपने माता-पिता के लिए उसे और एक कार तथा घर खरीद सके।

  उज्‍जवल आकाश, पक्षी, खिले हुये फूल और टेलीविजन देखते लोगों से भरा घर जैसे चित्र अधिक रंगीन हैं।

    झोना ने कहा, "जब वे कारखाने के बाहर के जीवन के चित्र बनाते हैं तो उनमें कई रंग होते हैं।" उन्‍होंने कहा कि अक्सर माता-पिता की तुलना में बच्चों के लिये बेहतर जीवन की कल्पना करना आसान होता है।

  परामर्शदाताओं का कहना है कि वयस्कों को असल मायने में स्वतंत्र होने के लिए अधिक मनोवैज्ञानिक सहायता की आवश्यकता होती है, क्योंकि अपने पूर्व मालिकों के प्रतिशोध के भय से वे उत्‍पीड़न की बात स्‍वीकार करने से डरते हैं।

    जहां यौन उत्पीड़न से बचाये गये लोगों को अक्सर आश्रय स्‍थलों में सहायता मिलती है, वहीं बचाये गये बंधुआ मजदूरों को केवल उनके गांवों में वापस भेज दिया जाता है, जहां वे स्‍वयं को बाहरी दुनियां से काट लेते हैं।   

  बिस्वाल ने कहा, "लेकिन बच्चे हमेशा आशावादी होते हैं।"

  "इसमें कुछ समय लगता है, लेकिन आखिर में वे अपने सपनों को साझा करते हैं और वे सपने सुंदर हैं।" 

(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- क्लेयर कोज़ेंस; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

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